श्री अनुपम मिश्र स्मृति साहित्य (2)- 2018
राजस्थान का अनुपम व्याख्यान
एक रिपोर्ट: द्वितीय अनुपम व्याख्यान (22 दिसम्बर, 2018)
लेखक: अरुण तिवारी
श्री अनुपम मिश्र जी का स्मरण करने का एक मौका, गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति ने भी जुटाया। द्वितीय अनुपम व्याख्यान : तिथि – 22 दिसम्बर; श्री अनुपम मिश्र जी की वास्तविक जन्म तिथि। स्थान : नई दिल्ली, राजघाट के सामने स्थित गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के परिसर का सत्याग्रह मण्डप। तय समय : सायं 5.30 बजे। अनुपम जी, समय का अनुशासन मानने में यकीन रखते थे। द्वितीय अनुपम व्याख्यान, इस बार इसकी पालना करने में कुछ चूक गया। कार्यक्रम, पूरे 58 मिनट विलम्ब से शुरु हुआ। मित्रों द्वारा पिता स्व. श्री भवानी प्रसाद मिश्र के स्मृति में आयोजन करने का सुझाव देने पर अनुपम जी ने व्यक्ति स्मृति आयोजनों के प्रति समर्पित संवेदना की अवधि दो वर्ष बताई थी। इसकी झलक, इस आयोजन में भी दिखी। प्रथम अनुपम व्याख्यान में 500 तक पहुंची उपस्थिति, इस बार 125 तक सिमट गई।
अब वह, जो बहुत अच्छा हुआ।
गत् वर्ष की भांति मंच वैसा ही सादा, पर सुंदर। छाती तक नंगे बदन वाला वही गांधी चित्र। उस पर सूत की वही माला। मध्य में वही अनुपम तसवीर। बाईं ओर इकाई, दहाई, सैकड़ा वाली वही इबारत, दाईं ओर सीता बावड़ी के जरिए समूचे जीवन दर्शन को सामने रखती वही पंक्तियां :
”बीचो-बीच है एक बिंदुु जो जीवन का प्रतीक है। मुख्य आयत के भीतर लहरें हैंबाहर हैं सीढ़ियांचारो कोनो पर फूल हैं जो जीवन को सुगंध से भरते हैं…..”
बदला दिखा तो सिर्फ यह कि इस वर्ष पोडियम के सामने छतरी ताने अनुपम जी नहीं थे। जैसे उन्होने खुद कहा हो, ”अरे, मेरे छतरी वाले चित्र को क्या संजोना ! संजोना है तो बारिश की इन बूंदों को संजोओ। छतरी को उलट दो। इसमें बूंदें भर लो। मैं खुद-ब-खुद संजो उठूंगा।”
इस बार मंच पर सीता बावड़ी का चित्र भी नहीं था और दाईं ओर के सफेद स्क्रीन पर चिपको के चित्र भी नहीं। वक्ता का नाम नया था और स्क्रीन पर बहुत देर टिका रहा चित्र भी नया। उलटी हुई बाल्टी, टूटा हुआ मिट्टी का कुल्हड़ और जली हुईं तीन लकड़ियां…. जन्म-मरण का सच कहती हुई। जीवन-मरण के इसी सच से शुरु हुआ आयोजन का नाद्-संवाद।
पट खोलता जीवन संगीत
श्री अमिताभ मिश्र – पकी उम्र, पर आलाप ऐसा कि कोई भी फक्र करे। ‘ज़िंदगी का है भरोसा’ से लेकर ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ तक अध्यात्म के कई झरोखे…कई पट।
फिर वह पल आया, जिसका सभी को इंतज़ार था। एक मेज, एक सोफा। आसीन हुए श्री चतर सिंह; राजस्थानी समाज व पर्यावरण के कार्यकर्ता; राजस्थान के ज़िला जैसलमेर की रामगढ़ तहसील के किसान। पीली टोपी, बादामी जैकेट, बंद बाजू का कुरता, सफेद पायजामा, पैरों में चप्पल; साथ में सफेद शाॅल और छोटा सा चरखा, जैसे कह रहे हों किसानी का सम्मान भी ज़रूरी है और इससे चरखे के स्वावलंबी विचार का जुड़ाव भी। सभी ने खडे़ होकर करतल ध्वनि से इस विचार का भी सम्मान किया और श्री चतर सिंह जी का भी।
एक परिचय : श्रीमान चतर सिंह
श्री सोपान जोशी ने परिचय कराया। हिमालय, दिल्ली और राजस्थान। राजस्थान की रजत बंूदों से अनुपम जी ने ऐसा रिश्ता बनाया कि अनुपम जी को राजस्थान ने अपना लिया। इसी अपने राजस्थान के हैं, श्रीमान चतर सिंह। चतर सिंह जी ने स्नातक में अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र और राजनीति शास्त्र पढ़ा। बकौल चतर सिंह जी, समाज शास्त्र की उनकी असली पढ़ाई, काॅलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही शुरु हुई। जैसलमेर की ‘प्रभात’ नामक संस्था में अनुपम जी और चतर सिंह जी ने कभी साथ-साथ काम किया था। पिछले 10-12 वर्षों के दौरान यह साथ, सतत् संवाद के रूप में बढ़ता गया। ढाई वर्ष पहले आये लातूर जल संकट के वक्त, अनुपम जी ने चतर सिंह जी के साथ हुए संवाद को एक सुन्दर लेख का रूप दे दिया। शीर्षक रखा – ‘अच्छे विचारों का अकाल’। बाद में इसी शीर्षक से अनपुम जी के लेखों का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ।
मैं, जैसलमेर से बोल रहा हूं
”मैं, जैसलमेर ज़िले के रामगढ़ के पास…पिता का नाम कर्ण सिंह…” नपे-तुले शब्द, किंतु पूरी तरह सहज और सरल। अपने पूर्वजों के नाम बताने शुरु किए तो इतनी पीढ़ियां और इतने पेशे गिना गए कि एक ऐसा सामाजिक विन्यास प्रस्तुत हो गया, जिसमें पेशागत् भेदभाव की कोई गुंजाइश ही न थी। चतर सिंह जी ने समाज के साथ अपने जुड़ाव की दास्तां बयां की। कैसे समाज ने एक साल तक उन्हे परखा कि कहीं यह नेता बनने की कोशिश में तो नहीं है। चतर सिंह जी को भी एक साल तो समाज को समझने में ही लग गए।
बोले, ”जब मैं समाज को नहीं, सरकारी ढांचे को ज्यादा देखता था। लोगों के लिए हड़ताल करना…मांग करना सीख गया था। मैने कहा कि मटकी फोड़कर प्रदर्शन करते हैं। वे बोले कि मटकी फोड़ देंगे तो पानी किसमें भरेंगे ?”
संभवतः इसी समझ से चतर सिंह जी की जुबां पर आया कई पीढ़ियों का नाम व सम्मान। मुझे एहसास हुआ कि जड़ों से इतने गहरे जुड़ाव के चलते ही संभव है ऐसा सम्मान और ऐसा सामाजिक विन्यास; तो क्यों न ऐसा चाहने वाले यही करेें।
समाज के पास अपनी सब समस्याओं के हल
चतर सिंह जी ने कहा, ”श्री अनुपम मिश्र जी से मिलने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि समाज अपनी सब समस्याओं के हल जानता है।…समाज कहता था कि चतरसिंह पढ़ा-लिखा है। इसके पास चार आंखें हैं। मेरी चार आंखें थी कि नहीं…अनुपम जी न आदेश देते थे, न बहुत कहते थे; हां, जब वह मुस्कराते थे तो उनकी मुस्कराहट में मुझे समस्याओं का हल नजर आ जाता था।… पर्यावरण के स्वभाव को स्थानीय समाज किस ढंग से समझता है; जो हम नहीं समझ पाते थे, अनुपम जी उसे एक नजर से समझ जाते थे। लोग ताज्जुब करतेे थे कि ये दिल्ली से आया आदमी कैसे समझ जाता है ?”
”जैसे हम मनुष्यों की तीन पीढ़ियां एक साथ रहती हैं, वैसे ही मवेशियों की भी।….बचपन में पढ़ा था कि ऊंट एक सप्ताह तक पानी नहीं पिता था। बकरी 100 दिन तक बिना पानी पीये रह सकती है। मैने सोचा, यह कैसे संभव है ? सीमावर्ती इलाके में पशु रात को चारा चरता है। दिन में झाड़ी में छिप जाता है। न गाभिन हो, न दूध देती हो, ऐसी बकरी जंगल में चरे तो वह 100 दिन तक बिना पानी पीये रह सकती है।”
”छंगाई का मतलब होता है, पेड़ की पतली टहनियों को काटना। जब अकाल, चारे की समस्या, तब करते छंगाई।…. इसी तरह गाभिन पशु तथा कमज़ोर, जिसे पैरों से चलने में दिक्कत, उसे चारा लाकर खिलाते हैं और बाकी को चराते हैं।”
गौर कीजिए कि पशु-पालक समाज के प्रतिनिधि के रूप में पेश चतर सिंह जी के इस छोटे से कथन में छुट्टा मवेशियों से पैदा दिक्कतों से परेशान खेतिहरों के लिए भी बेहतर विकल्प मौजूद है और आत्महत्या तथा ज़हरीली खेती करने वालों के लिए भी।
चतर सिंह जी ने राजस्थान के पानी को लेकर भी अपने अनुभव बांटे। स्क्रीन पर चित्र बदलते रहे और वह कहते रहे।
11 एमएम बारिश में बसर
”हमारे पास तीन तरह का पानी है: पारलर पानी, मुलतानी पानी और पाताली पानी। हमारे यहां मुलतानी मिट्टी है। मुलतानी मिट्टी में पानी रुक जाता है। मुलतानी मिट्टी के नीचे पानी नहीं होता। होता भी है तो खारा..200, 400, 500 फीट तक।”
”मेरे गांव में साल में औसतन 476 एम एम (मिलीमीटर) बारिश होती है। पूरे ज़िले का देखें तो 150 एम एम का औसत है। इस चौमासे में हमारे गांव में सिर्फ दो बार बारिश हुई; एक बार चार एम एम और दूसरी बार सात एम एम। कुल मिलाकर 11 एम एम। हमारे गांव में 35 वेरी हैं। इस अकाल में तीन वेरी पूरे गांव को तृप्त करती रही। एक वेरी में 25 से 30 फीट पानी मिलता है।… बात ऐसी है कि कम पानी में जीने का स्वभाव, समाज में इतना रचा-बसा है कि एहसास ही नहीं हुआ कि बसर नहीं कर पायेंगे।”
”राजस्थान में कभी समुद्र था। यह देखो, डेढ़ फीट चौड़ा और 250 फीट गहरा कुंआ। किसने बनाया, कब और कैसे ? इतना बड़ा पत्थर 150-200 किलोमीटर की दूरी से कैसे लाया गया होगा ?
कोई स्पष्ट जवाब नहीं। ऐसे कुंए का पानी बारिश के दिनों में नहीं निकालते। आसपास नमी हो जाती है। पत्ते झड़ते हैं। उनसे खाद बन जाती है। 1972 में मैं 15-16 साल का था। पिताजी कुओं की खुदाई करने जोधपुर जाया करते थे। तब जोधपुर में 70 फीट पर पानी था, हमारे यहां 150 फीट पर। आज जोधपुर में 700 फीट पर पानी है और हमारे यहां जो तब था, वही अब है ।”
समाज का पानी
”खड़ीन…समाज ने खुद बनाई।… घड़ीसर से पानी भरकर शहर में ले जाते मैने खुद देखा है। जमीसर का पानी, किसी अकाल में खत्म नहीं हुआ। इस पीपरासर को देखो। लोग पीने के लिए नहर का नहीं, पीपरासर का पानी पीते हैं।… मैं दवा ले रहा था तो पिताजी ने कहा कि पीपरासर का पानी पीयो। पीपरासर का पानी पीकर खुद ही भूख लगने लगी। एक बार मात्र डेढ़ घंटे की बारिश में पीपरासर भर गया। इसके आगोर में 15 से 20 किलोमीटर का पारलर पानी आता है। इसके आगोर में हमने कोई रोक..बांध नहीं बनाया। अमावस-पूरनमासी पर महिलायें इसके किनारे झाडू़ लगाते…भजन गाते मिल जायेंगी।”
उदारता का खुला पट : 12 गांव की ज़मीन
”गांव में बिना उर्वरक, बिना कीटनाशक उत्पादन हो रहा है। एक क्विंटल बीज में 40 क्विंटल गेहूं का उत्पादन। जहां से पानी बहकर आ रहा है। इस खेती में उन गांवों के लोगों का भी हक़ है। जैसलमेर में ज़मीन के बंदोबस्त के लिखित रिकाॅर्ड में 12 गांवों की ज़मीन लिखा है।….जो जोतने का काम नहीं करते, वे ज़मीन के तो मालिक हैं, लेकिन उत्पादन के मालिक नहीं। प्रश्न है कि अब 1200 घर कैसे जोतें ? तो मोहल्लावार जोतने का सिस्टम बना। जो नहीं जोतते, वे भी आज अपनी ज़मीन को समाज की ज़मीन मानते हैं। इस उदारता को समझता हूं तो कई पृष्ठ खुलते हैं।”
समझ के आयाम कई
चतर सिंह जी ने अपने अनुपम व्याख्यान में ‘आज भी खरे हैं तालाब’ – पुस्तक में छपे अमरसागर के चित्र में हाथी और घोडे़ का संकेत सामने रखा। पीपरासर की धनुषाकार पाल में मुड़ी कोहनी के आकार की भौतिकी समझाई। बिना सीमेंट टिके पत्थर की ज्यामिति पर प्रकाश डाला। बारिश की नाप से रेत की नमी की नाप करनी बताई। बादलों के बीच से निकलती किरणों के तीरों से बारिश का पूर्वानुमान करना समझाया। पानी की पाल टूटने से घर की चौखट, झोपड़ी की छत और चारपाई की अदवायन टूटने तथा जूते व जेब के फटने का रिश्ता बताया। प्राकृतिक खेती और रोटी की मिठास का किस्सा सुनाया। इस बहाने वह 532 विक्रम सम्वत् के ज्ञानियों के उस परम्परागत ज्ञान पर भरोसे का नफा बता गये, जो साल-पांच साल नहीं, कई सौ साल की योजना पर काम करने की दृष्टि रखते थे।
चतर सिंह जी ने एक चित्र के ज़रिए सरकारी झूठ भी सामने रखा।
”जैसलमेर ज़िला, देश में सबसे अधिक सिंचित भूमि वाला ज़िला है। कैसे ? ऑन रिकाॅर्ड..इंदिरा गांधी नहर सिंचित कर रही है। फोटो में देखो। मौके पर कुछ नहीं है।…. जब से पाइप लाइन आ गई, लोगों ने पानी का काम करना बंद कर दिया। जल ढांचे खस्ता हाल हो गए।”
शेष प्रश्न
द्वितीय अनुपम व्याख्यान पूरा हुआ। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के कार्यक्रम कार्यकारी श्री राजदीप पाठक ने याद दिलाया कि सलाद, अंचार, पापड़, गर्मागर्म पूड़ियां, आलू की सब्जी, अरहर की दाल, चावल और लड्डू हमारा इंतज़ार कर रहे थे। किंतु एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित था – ”पाइपों की ओर ताकना कब बंद करेगा शेष समाज ?”
अनुपम जी होते तो शायद कहते, ”अपन इस सवाल की बहस में क्यों पड़ें ? चतर सिंह, लक्षमण सिंह और राजेन्द्र के साथ मिलकर किसी समाज ने किया न। अपन भी करें। अपन करते रहेंगे तो एक दिन बाकी समाज भी पाइप की तरफ ताकना बंद कर देगा।”