30 मई: हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर कुछ आपसीखी
अरुण तिवारी
पत्रकारिता के बीज और संस्कार
उच्चतर माध्यमिक और आगे मैने विज्ञान की पढाई की और वह भी अंग्रेजी माध्यम से। रोजी-रोटी की दौङ में शामिल होने के वक्त तक भी हिंदी का लेखक या पत्रकार बनना मेरी सोच का हिस्सा नहीं था। किंतु आज अंग्रेजी, मेरी समझ से दूर हो गई है और हिंदी में पठन-लेखन-वाचन मेरा कर्मलेख बन गया है। पलटकर निगाह डालता हूं, तो समझ में आता है कि बचपन में किए कुछ अभ्यास, गढी गई कुछ गतिविधियां परिस्थितियां, प्रेरणायें और हमारी मूल वृति मिलकर बहुत पहले तय कर चुकी होती हैं कि हम आगे चलकर बने कुछ भी, करेंगे क्या।
आज जनसंचार के चार माध्यम हैं: श्रृव्य, दृश्य, प्रिंट और नेट। चारों माध्यमों की पत्रकारिता 10 लक्षणों की मांग करती है: रुचि, शब्द ज्ञान, भाषा की लय का ज्ञान, लक्ष्य पाठक/श्रोता/ दर्शक के अनुकूल भाषा और तथ्य का चयन करने की समझ, अच्छा उच्चारण, अच्छी आवाज, कम शब्दों में अधिकतम संप्रेषित करने की क्षमता, विषय विश्लेषण क्षमता, समग्र सोच तथा आत्म विश्वास। मैं पाता हूं कि पत्रकारिता के लिए जरूरी कौशल विकास की मेरा असल प्रशिक्षण तो बचपन से ही शुरु हो गया था।
बाबूजी रात के वक्त अक्सर हमें बोल-बोल कर पढने को कहते थे; ताकि उन्हे पता चल जाये कि हम पढ रहे हैं या सो रहे हैं। इस अभ्यास के कारण बोलने की झिझक दूर हुई; उच्चारण बेहतर हुआ; लिहाजा, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं और आकाशवाणी की स्वर परीक्षाओं में सफल हुआ। दरअसल, बोलकर पढते वक्त जहां लय टूटी, वहीं समझ में आ जाता है कि यहां शब्द बदलना अथवा आगे-पीछे करना चाहिए। लेखन में इस पकङ का विशेष महत्व है। खासकर, श्रृव्य-दृश्य कार्यक्रमों के आलेख लेखन में लय पकङने की यह सीख बहुत काम आई। इस सीख ने मुझे बाद में कविता लेखन में भी धकेल दिया। आप समझ सकते हैं कि बोल-बोल कर पढने के एक अभ्यास ने आगे चलकर मेरे लिए कितने दरवाजे खोले।
बचपन में पढी अंग्रेजी की एक कविता मुझे याद नहीं। छठी कक्षा में पढी कहानी और आठवीं-दसवीं में पढी कई कवितायें मुझे आज भी याद हैं।
आज समझ में आता है कि क्यों ? …..क्योंकि हिंदी में मेरी रुचि थी।
इस रुचि के निर्माण में दो परिस्थितियां सहायक हुईं: एक, रात्रि भोजन के वक्त, बाबूजी द्वारा रेडियो पर नियम से ’हवामहल; नाट्य कार्यक्रम को सुनना; दूसरा, एक हिंदी और एक अंग्रेजी अखबार के अलावा नंदन, बालभारती, सरिता, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग जैसी उस समय की ख्यातिनाम पत्रिकाओं को उपलब्ध कराना।
विज्ञान की पढाई, विश्लेषण क्षमता का निर्माण करती है। यह इसका गुण है। निस्संदेह, यह गुण मेरी पत्रकारिता में सहयोगी हुआ। किंतु अंग्रेजी माध्यम से विज्ञान पढने की विवश्ता ने मुझसे स्कूली पठन-पाठन की रुचि छीन ली। आकाशवाणी कार्यक्रमों में मिली तारीफ ने काफी बाद में मुझे मेरी रुचि का पता बताया। आकाशवाणी ने मुझे विषय को शब्द और समय सीमा में बांधकर क्रमशः लिखना और पढना सिखाया। मैने संवाद और कार्यक्रम संचालन के गुर भी मैने कार्यक्रम करते हुए सीखे। एक रेडियो-टेलीविजन समाचार प्रस्तोता में इन दोनो गुरों का होना बेहद जरूरी है।
वर्ष 1989-90 में प्रिंट मीडिया प्रोडक्शन सीखने के लिए दिल्ली प्रेस अच्छी जगह थी। वहां प्रशिक्षु पत्रकार के रूप तीन माह की नौकरी में मैं औपचारिक रूप से मैं न तो पत्रकारिता सीख पाया और न ही प्रोडक्शन। हां, एक बात मैने खूब सीखी: एक ही कुर्सी पर लंबे समय तक बिना बोले बैठना और कुछ न कुछ करते रहना। यह सीख मेरी आदत बन गई और आगे बहुत काम आई।
आज से 35 वर्ष पहले शोहरत की ऊंचाई तक पहुंचे साप्ताहिक अखबार ’चौथी दुनिया’ को दो उपहार जन्म के साथ ही मिले: पहला, मालिक होने के बावजूद श्री कमल मुरारका द्वारा किसी तरह की दखलांदाजी का न किया जाना और दूसरा, संपादक श्री संतोष भारतीय द्वारा एक युवा अच्छी टीम का चयन। श्री कमर वहीद नक़वी के शिक्षण और श्री रामकृपाल सिंह के कुशल प्रशासन ने मिलकर टीम को करने और उभरने का पूरा मौका दिया। अजय चौधरी, आलोक पुराणिक, आदियोग, अरविंद कुमार सिंह, शीतल प्रसाद सिंह, आदियोग, चंचल, धीरेन्द्र अस्थाना, राजीव कटारा, सुधेन्दु पटेल, विनोद चंदोला आदि पहली टीम के सदस्य थे।
दूसरे दौर में अन्नू आनंद, अजीत अंजुम, संजीव सिन्हा, किशोर नैथानी और मेरे जैसे लोग आये। चौथी दुनिया में उपसंपादक स्तर पर भी निर्णय लेने की काफी आजादी थी। यह आजादी, अपना सर्वश्रेष्ठ करने की प्रेरणा और जवाबदेही… दोनो सुनिश्चित करती है। प्रोडक्शन की थोङी-बहुत समझ भी मुझे यहीं आई।
चौथी दुनिया में ही मैने सीखा कि संपादक को अपने पास आई हर रचना की स्वीकृति-अस्वीकृति का कारण सहित उत्तर देना चाहिए। संपादक को चाहिए कि वह संवाददाताओं की वरिष्ठता की बजाय, खबर की अहमियत के आधार पर उसका चयन आकार और स्थान तय करे। आंचलिक मीडिया में कई ऐसी महत्वपूर्ण खबरें आती हैं, जिनकी ठीक से पङताल कर राष्ट्रीय मीडिया में जगह देने की प्रवृति बढे तो पाक्षिक प्रकाशन भी, दैनिक से अधिक पहचान और पकङ बना सकते हैं। चौथी दुनिया में संवाददाताओं को इस बाबत् विशेष निर्देश थे। हाशिमपुरा कांड का सच सबसे पहले पेश कर चौथी दुनिया ने उस जमाने में यही किया था। आज तेज तकनीकी पहुंच और इसी सोच का लाभ लेकर टेलीविजन समाचार चैनल सब पर भारी पङ रहे हैं।
जाने-माने कहानीकार और संपादक श्री कमलेश्वर के साथ काम करने और दैनिक अखबार का काम सीखने की इच्छा मुझे दैनिक जागरण, दिल्ली में ले आई। तीन महीने मुख्य डेस्क पर काम करने के बाद, तीन पेज का स्थानीय डेस्क मुझ अकेले के भरोसा छोङ दिया गया। इस व्यवस्था ने मुझे यहां मैने कम समय में ज्यादा और ज्यादा सतर्कता के साथ काम करना सिखा दिया।
संपादकीय विभाग के सहयोगियों के मामले में प्रबंधन के सीधे दखल को संपादक बर्दाश्त न करे। संपादक, संपादकीय टीम की हर छोटी दिक्कत का ख्याल करे। संपादक, एक अच्छा प्रशासक भी हो। यह हिम्मत और व्यवहार वहां कमलेश्वर जी में देखा। मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का संस्कार बाबूजी के जीवन ने तो मुझे सिखाया ही; कमलेश्वर जी की पाठशाला ने भी सिखाया।
’समय सूत्रधार’ पत्रिका मेरा अगला पङाव थी। वहां कई दिग्गज साहित्यकार और पत्रकार थे किंतु वहां पत्रकारिता से ज्यादा, कार्यालयी राजनीति की मेरी समझ में इजाफा हुआ। यही सीखा कि काम कम और कर्मी ज्यादा हो तो संस्थान का बंटाधार होने से कोई नहीं बचा सकता।
आगे की मेरी ज्यादातर यात्रा दृश्य माध्यम और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में है। इस यात्रा की सीख दो हैं: पहली, यदि किसी भी माध्यम की हर विधा को खुद करके सीखना या समझना हो, तो यह मौका छोटे संस्थान में ज्यादा मिलता है; दूसरी कि कङी मेहनत, ईमानदारी और स्व-शिक्षण का कोई विकल्प नहीं होता। सिखाना हमेशा जारी रहे; यह हर काल की सीख है।
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One thought on “30 मई: हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर कुछ आपसीखी ”
दिल के अंदर बैठ कर लिखा गया लेख , अरुण जी हमेशा की तरह इस लेख में भी हैं ” शानदार ”
ज़ाकिर हुसैन