गंगा हितों की अनदेखी के मार्ग
लेखक : अरुण तिवारी
नदियों के अविरल-निर्मल पक्ष की अनदेखी करते हुए उनकी लहरों पर व्यावसायिक सवारी के लिए जलमार्ग प्राधिकरण। पत्थरों के अवैध चुगान व रेत के खनन के खेल में शामिल खुद शासन-प्रशासन के नुमाइंदे। गंगा की ज़मीन पर पटना की राजेन्द्र नगर परियोजना। लखनऊ में गोमती के सीने पर निर्माण। दिल्ली में यमुना की ज़मीन पर विद्युत संयंत्र, अक्षरधाम, बस अड्डा, मेट्रो अड़्डा, रिहायशी-व्यावसायिक इमारतें आदि आदि। प्रकृति विरुद्ध ऐसे कृत्यों के दुष्परिणाम हम समय-समय पर भुगतते रहते हैं; बावज़ूद इसके शासन-प्रशासन द्वारा खुद अपने तथा समय-समय पर अदालतों द्वारा तय मानकों, क़ानूनों, आदेशों व नियमों की धज्जियां उड़ाने के काम जारी हैं। इसकी ताज़ा बानगी दो ख़ास सड़क परियोजनायें हैं: चारधाम और गंगा एक्सप्रेस-वे।
चारधाम ऑल वेदर रोड : मानकों की अनदेखी
बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री – उत्तराखण्ड चारधाम यात्रा के मुख्य तीर्थ यही हैं। ये चारों धाम क्रमशः अलकनंदा, मंदाकिनी, भगीरथी और यमुना के उद्गम क्षेत्र में स्थित हैं। चारों धामों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों पर वाहनों की गति तेज करने के लिए चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना नियोजित की गई है।
परियोजना के नियोजक, परियोजना की सड़कों को 12 मीटर चौड़ा करने की जिद्द पर अडे़ हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली हाईपावर कमेटी ने चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना की सड़कों की चौड़ाई को 5.5 मीटर तक सीमित करने की सिफारिश की है। इस सिफारिश का आधार, केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय द्वारा 23 मार्च, 2018 को जारी एक परिपत्र है। जबकि केन्द्र सरकार ने अपने ही परिपत्र को यह कहते हुए नकार दिया है कि परिपत्र भविष्य की परियोजनाओं पर लागू होता है, चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना पर नहीं।
हिमालयी हितों पर भारी निजी हित
पूछने लायक सवाल है कि
यदि परिपत्र में दिए मानकों का मंतव्य पर्यावरणीय क्षति को न्यून करना है तो फिर उन्हे लागू करने के लिए वर्तमान और भविष्य में भेद करने का औचित्य ? ऐसे में सत्तारुढ़ दल पर किसी खास के हितों के लिए पर्यावरणीय हितों की अनदेखी का आरोप लगे तो क्या ग़ल़त है ?
गौरतलब है कि शासन ने ऐसा सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह याद दिलाने के बावजूद किया कि चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना, एक निर्माणाधीन परियोजना है और परिपत्र के मानक यहां भी लागू होते हैं।
इतना ही नहीं, चारधाम परियोजना को शासन के मनचाहे तरीके से निर्मित कराने के लिए कमेटी अध्यक्ष हस्ताक्षरित रिपोर्ट पर गौर करने की बजाय, कुछ सदस्यों द्वारा अलग से रिपोर्ट पेश कराने का खेल खेला गया।….और अब शासन, संवैधानिक कायदों की धज्जियां उड़ाते हुए हाईपावर कमेटी के संचालन में लगातार अनैतिक हस्तक्षेप कर रहा है। उत्तराखण्ड शासन भी पर्यावरण संबंधी मानकों व वैज्ञानिक आधारों की बजाय, बहुमत-अल्पमत आधारित राय का राग अलाप रहा है; मामला विचाराधीन होने के बावज़ूद निर्माण कार्य को जारी रखे हुए है।
श्रीनगर गढ़वाल से मुनि की रेती तक के नदी तटीय क्षेत्रों पर कुछ प्रतिबंध संबंधी अधिसूचना जारी कर ज़रूर दी गई है, किंतुनिर्माता एजेन्सियां भी निर्माण के दौरान मलवे को नदी भूमि पर डंप करने से नहीं चूक रही। वन क़ानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए दरख्तों को काटने से भी उन्हे कोई परहेज नहीं है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण तथा संचालन के दौरान हिमालयी हितों की अनदेखी पहले से जारी है ही।
यह उत्तराखण्ड की सरकार ही है, जो अपने ही प्रदेश में जन्मी यमुना-गंगा को जीवित मानने वाले अपने ही प्रदेश के हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। क्या प्रकृति हितैषी कदमों को दलों के आने-जाने अथवा कारपोरेट स्वार्थों से प्रभावित होना चाहिए ? नहीं, किंतु भागीरथी घाटी को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने वाली अधिसूचना के मूल मंतव्य की अनदेखी कर तैयार ज़ोनल मास्टर प्लान इसी रवैये का प्रदर्शन है। राज्य के एकमात्र शिवालिक हाथी रिजर्व संबंधी लागू अधिसूचना को भी रद्द करने की तैयारी की ख़बरें भी अख़बारों में है।
क्या हम यह बर्दाश्त करें कि ये सभी न तो वर्ष उत्तराखण्ड आपदा-2012 के कारण हुए भयावह नुकस़ान के कारणों से कुछ सीखने को राजी हैं और न ही भूगर्भीय प्लेटों में बढ़ती टकराहटों से संभावित विध्वंसों की आहटों से ? तिस पर मज़ाक करता यह बयान कि शासन गंगा की अविरलता-निर्मलता सुनिश्चित करने के लिए संकल्पबद्ध है !!
दुःखद है कि गंगा का उपहास सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है।
गोमती किनारे लखनऊ के बाद, अब मथुरा में राया नगर बसाने के बहाने यमुना रिवरफ्रंट योजना को क्या कहें ? गोमुख की चाहे एक बूंद, प्रयागराज न पहुंचती हो, लेकिन राजनैतिक बयान गोमुख से प्रयागराज को सड़क मार्ग से जोड़ने के शासकीय इरादे पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। इस इरादे को पूरा करने के लिए गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को ज़मीन पर उतारने का काम शुरु हो गया है।
पुनः प्रस्तुत गंगा एक्सप्रेस-वे
गौर कीजिए कि गंगा एक्सप्रेस-वे का प्रस्ताव पहली बार वर्ष 2007 में अस्तित्व में आया था। तब इसका रूट नोएडा से बलिया तक 1047 किलोमीटर लंबा था। सर्वप्रथम इसे उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग द्वारा बाढ़ रोकने के उपाय के रूप में प्रस्तावित किया गया था। विरोध होने पर लोक निर्माण विभाग ने इसे सड़क के रूप में प्रस्तावित किया था। गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण बाद में अस्तित्व में आया। कर्जदाता विश्व बैंक ने इसमें खास रुचि दिखाई। कालातंर में गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा के लिए नुक़सानदेह मानते हुए उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा इसकी पर्यावरणीय मंजूरियों को रद्द कर दिया गया। इसके साथ ही इसका काम ठ्प्प पड़ गया।
अब योगी सरकार ने गंगा से 10 कि.मी. की दूरी पर निर्मित करने के बदलाव के साथ गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को पुनः प्रस्तुत कर दिया है। मुआवजा राशि को भी पहले से कई गुना ज्यादा कर दिया गया है। गंगा एक्सप्रेस-वे का ताज़ा प्रस्ताव फिलहाल उत्तर प्रदेश में उत्तराखण्ड सीमा से लेकर वाया मेरठ, प्रयागराज, वाराणसी, बलिया तक प्रस्तावित है। ऊंचाई 08 से 10 मीटर, लेन फिलहाल 06, आगे चलकर 08। कुल 12 चरण, सम्पन्न करने का लक्ष्य वर्ष 2024। परियोजना की कमान, अब उत्तर प्रदेश एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीडा) के हाथ है। यूपीडा एक्सप्रेस वे तथा उसके दोनो ओर 130-130 मीटर चौड़ी लेन के अलावा भविष्य में उद्योगों को भी स्थापित करने के लिए भी अतिरिक्त भूमि अधिग्रहित करेगा। गंगा प्रवाह के पांचों राज्यों की परियोजनाओं पर निगाह डालें तो कह सकते हैं कि असल इरादा, गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा जलमार्ग के साथ जोड़कर दिल्ली से हावड़ा तक व्यापारिक व औद्योगिक लदान-ढुलान को बेरोकटोक गति प्रदान करना तो है ही, जल-संकटग्रस्त उद्योगों को गंगा का मनचाहे उपयोग की छूट देना भी है।
बुनियादी प्रश्न: तीन आधार
बुनियादी प्रश्न है कि क्या योगी सरकार द्वारा किए गए बदलाव मात्र से विरोध के वे सभी आधार खत्म हो गए, जिनकी बिना पर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी को रद्द कर दिया था ?
याद कीजिए कि शुरुआती प्रस्ताव के विरोध के तीन मुख्य आधार थे :
पहला, यदि गंगा एक्सप्रेस-वे निर्माण का मकसद बाढ़ नियंत्रण है तो बाढ़ नियंत्रण के ज्यादा सस्ते व सुरक्षित विकल्प मौजूद हैं। शासन को उन्हे अपनाना चाहिए। गंगा के ऊंचे तट की ओर नगर बसे हैं। निचले तट की ओर एक्सप्रेस-वे बना देने से गंगा दोनो ओर से बंध जाएगी; लिहाजा, बाढ़ का वेग बढे़गा। भूमिगत् जल के रिसाव में तीव्रता आएगी। परिणामस्वरूप, कटान और नुक़सान…दोनो बढेंगे। ऊंचे तट भी टूटेंगे। बसावटें हिलने को मज़बूर होंगी। एक्सप्रेस-वे बाढ़ के दुष्प्रभाव कम करने की बजाय, बढ़ाएगा।
विरोध का दूसरा आधार यह था कि अधिग्रहित भूमि तो किसान के हाथ से जाएगी ही; एक्सप्रेस-वे बनने से मृदा क्षरण, बालू जमाव में तेज़ी आएगी। इस कारण एक्सप्रेस-वे और गंगा के बीच की हजारों एकड़ बेशकीमती उपजाऊ भूमि दलदली क्षेत्र में तब्दील होने से किसान अपनी शेष भूमि पर भी खेती नहीं कर सकेगा। जाहिर है कि ऐसी भूमि के गैर-कृषि उपयोग की कोशिशें होंगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, सिविल इंजीनियरिंग विभाग में गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रो. यू के चौधरी का निष्कर्ष था कि यदि गंगा एक्सप्रेस-वे बना तो अगले एक दशक बाद उत्तर प्रदेश करीब एक लाख एकड़ भूमि का कृषि योग्य रकबा खो देगा। आबादी बढ़ रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में खेती योग्य रकबे में लगातार हो रही घटोत्तरी और मौसमी बदलावों के कारण उपज उत्पादन से नई चुनौतियां पैदा होंगी ही। इस तरह गंगा एक्सप्रेस-वे उपज और आय में कमी का वाहक साबित होगा। यह घातक होगा।
विरोधियों द्वारा पेश तीसरा प्रश्न यह था कि यदि मक़सद सड़क निर्माण है, तो सड़क को गंगा किनारे-किनारे बनाने की जिद्द क्यों ? कृपया इसे कहीं और ले जाइए। पहले राजमार्गों को बेहतर बनाइए। उनसे जुड़ी अन्य छोटी सड़कों को बेहतर कीजिए, गंगा एक्सप्रेस-वे की ज़रूरत ही नहीं बचेगी।
पर्यावरण विशेषज्ञ चिंतित थे कि एक्सप्रेस-वे पर चलने वाली गाड़ियों लगातार छोड़ी जाने वाली गैसों के कारण वाष्पीकरण की रफ्तार बढ़ेगी। गंगाजल की मात्रा घटेगी। गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा घटेगी। चूंकि गंगा एक्सप्रेस-वे के किनारे औद्योगिक व संस्थागत इकाइयों का निर्माण प्रस्तावित है; अत़ जहां वे एक ओर जहां जल-निकासी करेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके मलीन बहिस्त्राव व ठोस कचरे के चलते गंगा, शोषण-प्रदूषण का शिकार मात्र बनकर रह जाएगी। भूले नहीं कि भारत देश में ऐसा नहीं होने की गारंटी न कभी दी जा सकी है और हमारे रवैये के चलते न निकट भविष्य में देना संभव भी नहीं होगा।
विरोध का एक अन्य आधार, किसी वजह से परियोजना के बाधित हो जाने पर अधिग्रहित की गई भूमि के विकासकर्ता की हो जाने की शर्त थी। कम मुआवजे को लेकर भी विरोध था। तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा आंदोलन के दमन की कोशिशें हुईं। परिणामस्वरूप हुई मौत .व अन्य नुक़सान भी विरोध को आगे ले जाने का आधार बनी।
लालच के खिलाफ खड़ा विज्ञान
गौर करने योग्य विरोधाभासी तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे को लेकर धरना-प्रदर्शन इस बार भी है, किंतु इस बार मकसद कृषि भूमि अथवा गंगा के पर्यावरण की सुरक्षा नहीं है। बिजनौर, बुलन्दशहर, फर्रुखाबाद आदि ज़िलों के प्रदर्शनकारियों की मांग हैं कि गंगा एक्सप्रेस-वे उनके इलाके से होकर जाना चाहिए। वजह, अधिक मुआवजे का लालच है। इसे चाहे ज़माने का फेर कहें या मुद्दे की बजाय, दलों के पक्ष-विपक्ष अनुसार अपना रवैया बदलने की बढ़ती जन-प्रवृत्ति; वैज्ञानिक तथ्य इसके पक्ष में नहीं है।
वैज्ञानिक तथ्य कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में गंगा बाढ़ क्षेत्र की अधिकतम चौड़ाई – 28 किलोमीटर दर्ज है। खासकर, प्रयागराज में यमुना व फर्रुखाबाद में रामगंगा के मिलने तथा हरिद्वार के बाद के इलाके में गंगा बाढ़ क्षेत्र में बढोत्तरी होती है। गंगा बाढ़ क्षेत्र की सबसे अधिक – 42 मीटर की चौड़ाई बिहार के मुंगेर इलाके के बाद का प्रवाह मार्ग है। यह तथ्य, आई आई टी समूह द्वारा किए गए अध्ययन का हिस्सा है, जिसने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के लिए पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार की। उक्त तथ्य के आइने में विचार करना चाहिए कि योगी सरकार द्वारा गंगा एक्सप्रेस-वे को गंगा से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रस्तावित करना, आइने की अनदेखी है या नहीं ?
गुड गवर्नेन्स की दरकार
मुआवजा राशि को छोड़ दें तो तथ्य यह है कि गंगा एक्सप्रेस-वे का विरोध करते पर्यावरणीय और कृषि हितैषी अन्य आधार, वर्ष 2007 की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हैं। प्रश्न यह है कि क्या इसके बावजूद भी हम गंगा एक्सप्रेस-वे को इसके प्रस्तावित स्वरूप में स्वीकार करें ? शुरुआती प्रस्ताव का विरोध करने वालों में शामिल जल बिरादरी, कृषि भूमि बचाओ मोर्चा, फाॅरवर्ड ब्लाॅक, भाकपा (माक्र्सवादी), समेत जैसे ज़मीनी संगठनों व नागरिकों को तो इस पर विचार करना ही चाहिए। खासकर, भारतीय जनता पार्टी विधायक दल के तत्कालीन नेता ओम् प्रकाश सिंह को इस प्रश्न का जवाब अवश्य देना चाहिए; चूंकि सोनिया गांधी, अटल जी, जनेश्वर मिश्र, अमरसिंह, राजबब्बर समेत उत्तर प्रदेश के कई तत्कालीन सांसदों को पत्र लिखकर उन्होने भी गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को रोकने की गुहार लगाई थी।
यदि तंत्र खुद अपने द्वारा तय मानकों, आदेशों आदि की अनदेखी करने लगे और लोक को लालच हो जाए; ऐसे में नदियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा तो खतरे में पड़ेगी ही। कहना न होगा कि भारत की नदियों की अविरलता-निर्मलता को आज पर्यावरणीय समझ से ज्यादा, गुड गवर्नेन्स की दरकार है। निजी स्वार्थों के लिए प्रकृति हितैषी तथ्यों की अनदेखी न होने पाए; लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए। लोकतंत्र की मांग यही है।
क्या हम पूरी करेंगे ?